सिमरन करने वाला मनुष्य खुद को कभी अकेला या असहाय अनुभव नहीं करता क्योकि अब उसके साथ परमात्मा खड़ा होता है। सिमरन बेकार कभी नहीं जाता। सत्य तो केवल यही है कि परमात्मा की उपस्थिति हमारे अपने अंदर ही है।
अपने को अपने भीतर की आत्मिक शक्ति के साथ संयुक्त करना - यही शब्द का खुलना और शब्द से जुड़ना है। बहुत से लोगों के जीवन भर का सिमरन काम नहीं आता या कि शब्द नहीं खुलता, इससे उन में अविश्वास , संदेह ओर निराशा घर कर जाती है, तो इसका कारण क्या है। कई बार देखा जाता है कि असर होता तो है पर देर से - तो ऐसा भी क्यों होता है जवाब यही है कि हमारी सिमरन की सामर्थ - हमारी वासनाओं, बिखरे हुए विचारों और अनेकों तरह के मानसिक तनावों के कारण कमजोर पड़ जाती है सिमरन यानी याद करना , और नाम का सिमरन यानी परम् पिता - परम् पुरूष को याद करना - यही एक आत्मा की परम् आत्मा से प्रार्थना है.
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