जो तन मन से सिमरन करे, वो ही सतगुरु का होए।
एक रूह जिसे पूर्ण सतगुरु द्वारा नामदान मिला होता है। जब वह शरीर को छोड़ती है तो काल के दरबार में उसे पेश किया जाता है। उस बक्त सतगुरु अपनी रूह को लेने आ जाते हैं। सतगुरु और काल में वकालत होती है। काल सतगुरु से कहता है कि आपकी रूह ने भजन सिमरन तो किया है लेकिन मन से नहीं किया है। सतगुरु कहते हैं कि मन से मेरा कोई मतलब नहीं है । मन तो तेरा है।
मुझे मेरी रूह से मतलब है। रूह ने मेरा हुक्म माना है व भजन सिमरन पर बैठी है। सतगुरु के हुक्म के पीछे राज होता है। इसीलिए सतगुरु हमें अपने सत्संगों में बार-बार समझाते हैं कि मन लगे या ना लगे आपको हर हालत में भजन सिमरन पर घड़ी दो घड़ी बैठना ही है। हमें भी अपने सतगुरु पर पूर्ण विश्वास करना है। सांसारिक वस्तुओं की अभिलाषा को समाप्त करते हुए गुरु के हुक्म के अनुसार अधिक से अधिक समय भजन सिमरन को देना है।
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