Tuesday 20 June 2023

180 - हम अपना जीवन क्यों व्यर्थ गवां रहें है ? मोह का मायाजाल ?

संसार एक ऐसा मायाजाल है जिसमें जीव हमेशा के लिए फंसा रहता है। मायाजाल ऐसे फंसा कर रखता है कि जीव निकलना भी चाहे तो भी निकल नहीं सकता। संसार की चकाचौंध में जीव आंखें मूंदकर हमेशा के लिए संसार के विषय वासनाओं में ही अपना जीवन व्यर्थ गंवा देता है। जिसका दुष्परिणाम मरने के बाद जीव को भोगना पड़ता है , जीव की आंख तब खुलती है - जब मृत्यु जीव के सामने आ खड़ी होती है।


मायाजाल मतलब संसारिक संबंधी संसारिक विषय भोग इनमें ही अपना जीवन व्यर्थ गंवा देता है. 
कोई बच्चों की मोह ममता की वजह से तो कोई संसारिक जिम्मेदारियों की वजह से अपना अमूल्य जीवन बर्बाद कर लेता है। तो कोई विषय पदार्थों को इकट्ठा करने के चक्कर में अपना पूरा जीवन खत्म कर लेता है। भगवान ने केवल एक जीवन मांगा है हमसे, उसको देने में भी हम इतनी कंजूसी करते हैं।

संसार में खुद को खुद ही फंसा के रखा हुआ है। भगवान भी चाहिए, नर्कों से बचना भी चाहते है पर संसार को भी नहीं छोड़ना चाहते एक हाथ से संसार को पकड़ कर रखा है और दूसरे हाथ से भगवान को पकड़ने की कोशिश कर रहे हैं जो कभी भी संभव नहीं है।

इसी तरह हमारा समय धीरे धीरे खत्म होता जा रहा है पर हमें अभी भी होश नहीं आ रहा। इसी तरह जीवन बर्बाद करते रहे, तो ना नर्कों से बचेंगे ना संसार के चक्रों से निकलेंगे, जन्म मरण का चक्कर हमेशा के लिए इसी तरह चलता ही रहेगा। इसके ऊपर एक उदाहरण देता हूं अच्छे से पढ़ो और समझने की कोशिश करो।

नदी में हाथी की लाश बही जा रही थी। एक कौए ने लाश देखी, तो प्रसन्न हो उठा, तुरंत उस पर जा बैठा। जितना चाहा, मांस खाया। नदी का जल पिया। उस लाश पर इधर-उधर फुदकते हुए कौए ने परम तृप्ति की डकार ली। वह सोचने लगा, अहा ! यह तो अत्यंत सुंदर यान है, यहां भोजन और जल की भी कमी नहीं। फिर इसे छोड़कर अन्यत्र क्यों भटकता फिरूं?

कौआ नदी के साथ बहने वाली उस लाश के ऊपर कई दिनों तक रमता रहा। भूख लगने पर वह लाश को नोचकर खा लेता, प्यास लगने पर नदी का पानी पी लेता। अगाध जलराशि, उसका तेज प्रवाह, किनारे पर दूर-दूर तक फैले प्रकृति के मनोहारी दृश्य इन्हें देख-देखकर वह विभोर होता रहा। नदी ने तो एक दिन आखिर महासागर में मिलना था । वह खुश थी कि उसे अपना गंतव्य प्राप्त हो रहा था। सागर से मिलना ही उसका चरम लक्ष्य था, किंतु उस दिन लक्ष्यहीन कौए की, बड़ी दुर्गति हुई। चार दिन की मौज-मस्ती ने उसे ऐसी जगह ला पटका था, जहां उसके लिए न भोजन था, न पेयजल और न ही कोई आश्रय स्थल। सब ओर सीमाहीन अनंत खारी जल-राशि तरंगायमान हो रही थी।

कौआ थका-हारा और भूखा-प्यासा कुछ दिन तक तो चारों दिशाओं में पंख फड़फड़ाता रहा, अपनी बांकी टेढ़ी उड़ानों से झूठा रौब जमाता रहा, किंतु महासागर का कोई ओर-छोर उसे कहीं नजर नहीं आया। आखिरकार थककर, दुख से कातर होकर वह सागर की उन्हीं गगनचुंबी लहरों में गिर गया और एक विशाल मगरमच्छ उसे निगल गया।

शारीरिक सुखों में लिप्त मनुष्यों की गति भी उस कौए की तरह होती है, जो आहार और आश्रय को ही परम गति मानते हैं और अंत में अनन्त संसार रूपी सागर में समा जाते है।

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