बर्मा में एक बौद्ध भिक्षु को कहा गया कि वह नए मंदिर के लिए, विशेषकर उसके द्वार के लिए एक विशेष ड्राइंग, एक विशेष डिजाइन तैयार करे। तो भिक्षु ड्राइंग तैयार करने में लग गया।
उस भिक्षु का एक बहुत मेधावी, बहुत कुशल शिष्य था, जिसे उसने अपने पास रहने को कहा।
शिष्य का काम था कि गुरु जब ड्राइंग बना रहा हो तो वह सिर्फ उसे देखता रहे, और अगर ड्राइंग उसे पसंद आए तो उसे कहना था कि ठीक है, और अगर न पसंद आए तो उसे कहना था कि ठीक नहीं है। और गुरु ने कहा ‘जब तुम कहोगे ठीक तो ही मैं ड्राइंग को अधिकारियों के पास भेजूंगा। जब तक तुम ठीक नहीं कहते, मैं उसकी जगह दूसरी ड्राइंग बनाऊंगा।’
इस प्रकार सैकड़ों ड्राइंग बन गईं। तीन महीने बीत गए और गुरु भी घबरा गया। लेकिन उसने वचन जो दिया था तो उसे उसका पालन करना ही था। शिष्य वहीं रहता, गुरु ड्राइंग बनाता और शिष्य कहता कि ठीक नहीं; गुरु फिर नई ड्राइंग बनाने लगता।
एक दिन स्याही समाप्त होने को थी, गुरु ने शिष्य से बाहर जाकर स्याही लाने को कहा। शिष्य बाहर गया। इस बीच गुरु शिष्य की उपस्थिति को भूल गया और सहज हो गया। उसकी उपस्थिति ही समस्या थी। उसके मन में सतत यह धारणा बनी रहती थी कि शिष्य उसे देख रहा है, उसकी कृति को जांच रहा है।
और गुरु को निरंतर यह खयाल बना रहता था कि शिष्य को उसकी रचना जंचेगी या नहीं और कहीं उसे फिर से नई रचना में न लगना पड़े। इस आंतरिक ऊहापोह के कारण गुरु सहज नहीं हो पाता था। जैसे ही शिष्य बाहर गया, ड्राइंग पूरी हो गई। और जब शिष्य वापस आया तो उसने कहा: ‘अदभुत! लेकिन आप यह पहले क्यों नहीं बना सके?’
गुरु ने कहा. ‘अब मैं समझता हूं कि पहले क्यों नहीं बना सका; इसीलिए क्योंकि तुम यहां थे। तुम्हारे कारण मैं प्रयत्न कर रहा था कि तुम्हारी स्वीकृति मिले। और प्रयत्न ने सब चौपट कर दिया। मैं सहज—स्वाभाविक नहीं हो पाता था, मैं बह नहीं पाता था। तुम्हारे कारण मैं अपने को भूल नहीं पाता था।’
जब तुम ध्यान करते हो तो उसे करने का भाव, प्रयत्न का भाव, उसमें सफल होने का भाव ही बाधा बन जाता है। उसके प्रति सजग रहो। ध्यान जारी रखो और प्रयत्न के भाव के प्रति सावचेत रहो।
एक दिन आएगा—मात्र धैर्य रखने से वह दिन आ जाता है—जब प्रयत्न नहीं रहता है। सच तो यह है कि तब तुम नहीं रहते, केवल तब ही ध्यान रहता है।
No comments:
Post a Comment