Thursday 7 June 2018

024 - मालिक की प्लानिंग का क्या पता ?


पलटू अटक न कीजिए चौरासी घर फेर। बड़ी मुश्किल से आदमी हुए हो बड़ी मुश्किल से! 

चौरासी कोटि योनियों के चक्कर काटते—काटते यह असंभव घटा है कि मनुष्य हुए हो। कितने तड़फे होओगे, मनुष्य होने के लिए कितनी—कितनी आकांक्षाएं, अभीप्साएं न की होंगी , कितनी प्रार्थनाएं न की होंगी! 

और फिर मनुष्य जीवन का उपयोग क्या कर रहे हो? उसे ऐसे गंवा रहे हो जैसे उसका कोई मूल्य ही नहीं। लोग बैठे ताश खेल रहे हैं, शतरंज खेल रहे हैं,लकड़ी के हाथी घोड़े दौड़ा रहे हैं! 
पूछो, क्या कर रहे हो ? कहते हैं, समय काट रहे हैं। समय! एक पल भी खरीद न सकोगे.
सिकंदर भी न खरीद सका।मरते वक्त सिकंदर ने अपने चिकित्सकों से कहा था, मुझे चौबीस घंटे बचा लो, बस चौबीस घंटे, और ज्यादा नहीं चाहता। कोई बहुत बड़ी आकांक्षा न थी। फिर सिकंदर चौबीस घंटे बचना चाहे, और न बच सके, तो फिर सिकंदर और भिखमंगे में भेद क्या रहा ? 

लेकिन चिकित्सक सिर झुका लिए। उन्होंने कहा, असंभव है। मौत तो आ गई। अब तो पल दो पल के मेहमान हैं आप। चौबीस घंटे बचाए नहीं जा सकते। सिकंदर क्यों चौबीस घंटे बचना चाहता था ! एक छोटा—सा वचन दिया था। जब निकला था विश्व—विजय की यात्रा पर, तो सिकंदर की मां ने कहा था

बेटा, लंबी यात्रा है, कठिन यात्रा है, अच्छा तो यह होता कि इस झंझट में तू न पड़ता, लेकिन तू मानता नहीं; मैं बूढ़ी हो गई हूं, तुझे दोबारा देख पाऊंगी या नहीं? तो सिकंदर ने कहा था, मैं वचन का पक्का हूं, तू जानती है कि मैं वचन का पक्का हूं, जो कहूंगा वह करूंगा, लौट कर आऊंगा हर हाल लौट कर आऊंगा। और सिकंदर लौट रहा था वापस हिंदुस्तान से। फासला केवल इतना था कि अगर चौबीस घंटे का अवसर और मिल जाता तो वह अपना वचन पूरा कर लेता। बस कुछ ही कोसों की दूरी पर उसकी मृत्यु हुई घर से। वचन अधूरा रह गया।

अपनी प्लानिंग तो बना लेते हैं पर मालिक की प्लानिंग का क्या पता ?  कब बुलावा आया जाए और भरे परिवार को छोड़ कर जाना हो जाये। 
रैन गवाई सोये के, दिवस गवायो खायेहीरे जैसे जन्म है, कौड़ी बदले जाये

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