Sunday 8 July 2018

028 - सत्संग की क्या महिमा है ?

सत्संग तो वो दर्पण है जो मनुष्य के चरित्र को दिखाता है 
मनुष्य के जीवन मे अशांति ,परेशानियां तब शुरु हो जाती है जब मनुष्य के जीवन मे सत्संग नही होता . मनुष्य जीवन को जीता चला जा रहा है लेकिन मनुष्य ईस बारे मे नही सोचता की जीवन को कैसे जीना चाहिये. 
मनुष्य ने धन कमा लिया, मकान बना लिया, शादी घर परिवार बच्चे सब हो गये, गाडी खरीद ली. ये सब कर

लेने के बाद भी मनुष्य का जीवन सफल नही हो पायेगा क्योकि जिसके लिए ये जीवन मिला उसको तो मनुष्य ने समय दिया ही नही ओर संसार की वस्तुएं जुटाने मे समय नष्ट कर दिया !

जीवन मिला था प्रभु का होने ओर प्रभु को पाने के लिए लेकिन मनुष्य माया का दास बनकर माया की प्राप्ति के लिए ईधर उधर भटकने लगता है ओर ईस तरह मनुष्य का ये कीमती जीवन नष्ट हो जाता है जिस अनमोल रतन मानव जीवन को पाने के लिए देवता लोग भी तरसते रहते है उस जीवन को मनुष्य व्यर्थ मे गवां देता है. देवता लोगो के पास भोगो की कमी नही है लेकिन फिर भी देवता लोग मनुष्य जीवन जीना चाहते है क्योकि मनुष्य देह पाकर ही भक्ति का पुर्ण आनंद ओर भगवान की सेवा ओर हरि कृपा से सत्संग का सानिध्य मिलता है.
संतो के संग से मिलने वाला आनंद तो बैकुण्ठ मे भी दुर्लभ है. कबीर जी कहते है की 
राम बुलावा भेजिया , दिया कबीरा रोय
जो सुख साधू संग में , सो बैकुंठ न होय !!

रामचरितमानस मे भी लिखा है की - 
तात स्वर्ग अपवर्ग सुख धरि तुला एक अंग।
तुल न ताहि सकल मिलि जो सुख लव सतसंग।।

हे तात ! स्वर्ग और मोक्ष के सब सुखों को तराजू के एक पलड़े में रखा जाये ते भी वे सब सुख मिलकर भी दूसरे पलड़े में रखे हुए उस सुख के बराबर नहीं हो सकते, जो क्षण मात्र के सत्संग से मिलता है। सत्संग की बहुत महिमा है सत्संग तो वो दर्पण है जो मनुष्य के चरित्र को दिखाता है ओर साथ साथ चरित्र को सुधारता भी है!

सत्संग से मनुष्य को जीवन जीने का तरीका पता चलता है सत्संग से ही मनुष्य को अपने वास्तविक कर्यव्य का पता चलता है.
मानस मे लिखा है की -
सतसंगत मुद मंगल मुला,
सोई फल सिधि सब साधन फूला
अर्थातद सत्संग सब मङ्गलो का मूल है. जैसे फुल से फल ओर फल से बीज ओर बीज से वृक्ष होता है उसी प्रकार सत्संग से विवेक जागृत होता है ओर विवेक जागृत होने के बाद भगवान से प्रेम होता है ओर प्रेम से प्रभु प्राप्ति होती है  जिन्ह प्रेम किया तिन्ही प्रभु पाया
  • सत्संग से मनुष्य के करोडो करोडो जन्मो के पाप नष्ट हो जाते है.
  • सत्संग से मनुष्य का मन बुद्धि शुद्ध होती है
  • सत्संग से ही भक्ति मजबुत होती है!
एक घडी आधी घडी आधी मे पुनि आध
तुलसी संगत साध की हरे कोटि अपराध
सत्संग मे बतायी जाने वाली बातो को जीवन मे धारण करने पर भी आनंद की प्राप्ति ओर प्रभु से प्रीति होती है . आज मनुष्य की मन ओर बुद्धि विकारो मे फंसती जा रही है, मनुष्य हरपल चिंतित रहने लगता है,ओर हमेशा परेशान रहता है ईन सबका कारण अज्ञानता है -भगवान ने ये अनमोल रत्न मानव जीवन अशांत रहने के लिए नही दिया !


जब कोई मशीन हम घर पर लेकर आते है तो उसके साथ एक बुकलेट मिलती है जिसमे मशीन को कैसे चलाना है ईस बारे मे लिखा होता है उसी प्रकार भगवान ने ये मानव जीवन दिया ओर ईस मानव जीवन को सफल कैसे करना है ये हमे सत्संग ओर शास्त्रो से पता चलता है ईसलिए जीवन से सत्संग को अलग नही करना चाहिये क्योकि जब सत्संग जीवन मे नही रहेगा तो संसार के प्रति आकर्षण बढेगा ओर संसार के प्रति मोह मनुष्य के जीवन को विनाश की तरफ ले जाता है.
  • सत्संग की अग्नि मे मनुष्य के सारे विकार नष्ट हो जाते है.
  • आनंद कहीं बाहर नही है वो भीतर ही है लेकिन मनुष्य ने मन के चारो तरफ संसार के मोह की चादर लपेट रखी है ईसलिए वो आनंद ढक जाता है ओर महसुस नही होता ओर जब सत्संग से वो मोह रुपि चादर हट जाती है तो आनंद मिलने लगता है  जैसे मूर्तिकार पत्थर को तराशता है ओर पत्थर से गंदगी हटाकर उसे मुर्ति का रुप देता है उसी प्रकार जीवन मे जो अशांति परेशानी विकार आदि रहते है उनको सत्संग हटा देता है ओर मनुष्य का एक निर्मल चरित्र बना देता है!
जाने बिनु न होई परतीति ,
बिनु परतीति होई नहीं प्रीती
भगवान के प्रति पुर्ण समर्पण तब तक नही होगा जब तक विवेक नही होगा ओर बिनु सत्संग विवेक न होई मनुष्य का कर्तव्य क्या ओर अकर्तव्य क्या ये सब सत्संग से पता चलता है.
भागवत के ग्यारहवें स्कंध मे भगवान उद्धव से कहते है की संसार के प्रति सभी आसक्तियां सत्संग नष्ट कर देता है भगवान कहते है की हे उद्धव मै यज्ञ वेद तीर्थ,तपस्या ,त्याग से वश मे नही होता लेकिन सत्संग से मै जल्दी ही भक्तो के वश मे हो जाता हूं -

सन्तमत विचार - इसलिए सत्संग की बहूत महिमा है जीवन मे सत्संग को हमेशा बनाए रखना चाहिये ओर जब भी ओर जहां भी सत्संग सुनने या जाने का मौका मिले तो दूनिया वालो की परवाह किये बिना ही पहूंच जाना चाहिये क्योकि सत्संग बहुत दुर्लभ है ओर जिसे सत्संग मिलता है उसपर विशेष कृपा होती है मालिक की.



सत्संग का प्रभाव शुद्ध भक्ति को जगा देता है


एक बार देवर्षि नारद भगवान विष्णु के पास गये और प्रणाम करते हुए नम्र वचन बोलेः "हे लक्ष्मीपते, हे कमलनयन ! कृपा करके इस दास को सत्संग की महिमा सुनाइये।"


जगत्पति ने मंद-मंद मुस्कराते हुए अपनी मधुर वाणी में कहाः हे नारद ! सत्संग की महिमा का वर्णन करने में तो वाणी की गति नहीं है।" फिर क्षण भर रूककर श्री भगवान बोलेः "हाँ, यहाँ से तुम आगे जाओ। वहाँ इमली के पेड़ पर एक बड़ा विचित्र, रंगीन गिरगिट है, वह सत्संग की महिमा जानता है। उसी से पूछ लो।"


देवर्षि खुशी-खुशी इमली के पेड़ के पास गये और योगविद्या के बल से गिरगिट से बातें करने लगे। उन्होंने गिरगिट से पूछाः "सत्संग की महिमा क्या है ? कृपया बतलाइये।" सवाल सुनते ही वह गिरगिट पेड़ से नीचे गिर गया और छटपटाते हुए प्राण छोड़ दिये। 

नारदजी को बड़ा अचंभा हुआ। वे डरकर लौट आये और भगवान को सारा वृत्तान्त कह सुनाया। भगवान ने मुस्कराते हुए कहाः "अच्छा, नगर के उस धनवान के घर जाओ और वहाँ जो तोता पिंजरे में दिखेगा, उसी से सत्संग की महिमा पूछ लेना।"

नारदजी क्षण भर में वहाँ पहुँच गये एवं तोते से वही सवाल पूछा, मगर देवर्षि के देखते ही देखते उसने आँखें मूंद लीं और उसके भी प्राणपखेरू उड़ गये। अब तो नारद जी बड़े घबरा गये। वे तुरंत भगवान के पास लौट आये और कहने लगेः "यह क्या लीला है भगवन् ! क्या सत्संग का नाम सुनकर मरना ही सत्संग की महिमा है ?"

श्री भगवान हँसकर बोलेः "वत्स ! इसका मर्म भी तुमको समझ में आ जायेगा। इस बार नगर के राजा के महल में जाओ और उसके नवजात पुत्र से अपना प्रश्न पूछो।"

नारदजी तो थरथर काँपने लगे और बोलेः "हे प्रभु ! अब तक तो बच गया लेकिन अब की बार तो लगता है मुझे ही मरना पड़ेगा। अगर वह नवजात राजपुत्र मर गया तो राजा मुझे जिंदा नहीं छोड़ेगा।"

भगवान ने नारदजी को अभयदान दिया। नारदजी दिल मुट्ठी में रखकर राजमहल में आये। वहाँ उनका बड़ा सत्कार किया गया। अब तक राजा को कोई संतान नहीं थी। अतः पुत्र के जन्म पर बड़े आनन्दोल्लास से उत्सव मनाया जा रहा था। नारदजी ने डरते-डरते राजा से पुत्र के बारे में पूछा।

नारदजी को राजपुत्र के पास ले जाया गया। पसीने से तर होते हुए, मन-ही-मन श्रीहरि का नाम लेते हुए नारदजी ने राजपुत्र से सत्संग की महिमा के बारे में प्रश्न किया तो वह नवजात शिशु हँस पड़ा और बोलाः "महाराज ! चंदन को अपनी सुगंध और अमृत को अपने माधुर्य का पता नहीं होता। ऐसे ही आप अपनी महिमा नहीं जानते इसलिए मुझसे पूछ रहे हैं। वास्तव में आप ही के क्षणमात्र के संग से मैं गिरगिट की योनि से मुक्त हो गया और आप ही के दर्शनमात्र से तोते की क्षुद्र योनि से मुक्त होकर इस मनुष्य जन्म को पा सका। आपके सान्निध्यमात्र से मेरी कितनी सारी योनियाँ कट गयीं और मैं सीधे मानव-तन में पहुँच गया, राजपुत्र बना। यह सत्संग का कितना अदभुत प्रभाव है ! हे ऋषिवर ! अब मुझे आशीर्वाद दें कि मैं मनुष्य जन्म के परम लक्ष्य को पा लूँ।"

नारदजी ने खुशी-खुशी आशीर्वाद दिया और भगवान श्री हरि के पास जाकर सब कुछ बता दिया। श्रीहरि बोलेः "सचमुच, सत्संग की बड़ी महिमा है। संत का सही गौरव या तो संत जानते हैं या उनके सच्चे प्रेमी भक्त !"

क्या यह अमृतमय कथा पढ़कर आपका हृदय पावन नहीं हुआ ? क्या आपके मन में प्रभुप्रेम के पुष्प नहीं खिले ? क्या भक्तिरस का मकरंद आपने नहीं चखा ? 
संतों का सान्निध्य तो महाकल्याणकारी होता ही है किंतु अगर हमारी ओर से पूर्ण तत्परता, पूर्ण शरणागति हो एवं मोक्ष पाने की तीव्र ललक हो तो उसका प्रभाव और भी बढ़ जाता है तथा शीघ्र फल देता है। सदाचरण के साथ निर्मल बुद्धि भी हो तो सत्संग का प्रभाव शुद्ध भक्ति को जगा देता है और फिर भक्त भगवान में ही लीन हो जाता है, पूर्णता को पा लेता है।

सत्संग में आने से इन्सान को अपने कर्मो का बोझ हल्का लगने लगता है 

नियमित सत्संग में आने वाले एक आदमी नें जब एक बार सत्संग में यह सुना कि जिसने जैसे कर्म किये हैं उसे अपने कर्मो अनुसार वैसे ही फल भी भोगने पड़ेंगे ।
यह सुनकर उसे बहुत आश्चर्य हुआ।उसने अपनी आशंका का समाधान करने हेतु सत्संग करने वाले संत जी से पूछा..... अगर कर्मों का फल भोगना ही पड़ेंगा तो फिर सत्संग में आने का किया फायदा है.....?

संत जी नें मुस्कुरा कर उसे देखा और एक ईंट की तरफ इशारा कर के कहा कि तुम इस ईंट को छत पर ले जा कर मेरे सर पर *फेंक दो ।
यह सुनकर वह आदमी बोला संत जी इससे तो आपको चोट लगेगी दर्द होगा ।
मैं यह नहीं कर सकता.....

संत ने कहा....अच्छा, फिर उसे उसी ईंट के भार के बराबर का रुई का गट्ठा बांध कर दिया और कहा अब इसे ले जाकर मेरे सिर पे फैंकने से भी क्या मुझे चोट लगेगी....??
वह बोला नहीं....

संत ने कहा.....
बेटा इसी तरह सत्संग में आने से इन्सान को अपने कर्मो का बोझ हल्का लगने लगता है और वह हर दुःख तकलीफ को परमात्मा की दया समझ कर बड़े प्यार से सह लेता है।
सत्संग में आने से इन्सान का मन निर्मल होता है और वह मोह माया के चक्कर में होने वाले पापों से भी बचा रहता है और अपने सतगुरु की मौज में रहता हुआ एक दिन अपने निज घर सतलोक पहुँच जाता है,जहाँ केवल सुख ही सुख है.
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